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वो ख़ूँ बहा कि शहर का सदक़ा उतर गया | शाही शायरी
wo KHun baha ki shahr ka sadqa utar gaya

ग़ज़ल

वो ख़ूँ बहा कि शहर का सदक़ा उतर गया

सलीम शाहिद

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वो ख़ूँ बहा कि शहर का सदक़ा उतर गया
अब मुतमइन हैं लोग कि दरिया उतर गया

फिर जम'अ कर रहा हूँ पर-ए-काह-ए-सरगुज़िश्त
हैरान हूँ कि ज़ेहन से क्या क्या उतर गया

आसेब रास्ते में शजर रोज़-ओ-शब के थे
जंगल के पार मैं तन-ए-तन्हा उतर गया

ग़र्क़ाब हौके सीखी है गौहर-शनावरी
पत्थर न था कि पानी में गहरा उतर गया

मुझ को तो बे-मज़ा लगा पानी का ज़ाइक़ा
वो कौन था जो दश्त में प्यासा उतर गया

हाँ हार मान ली तिरी यादों के रू-ब-रू
इस बार कुफ़्र-ए-संग में तेशा उतर गया

ले आईं किस फ़राज़ पे लफ़्ज़ों की सीढ़ियाँ
काग़ज़ पे हू-ब-हू वो सरापा उतर गया

आहट इलाज है दिल-ए-वहशत-पसंद का
रखा नमक ज़बाँ पे कि नश्शा उतर गया

'शाहिद' तलाश-ए-रिज़्क़ है ताइर की जुस्तुजू
पानी मुझे जहाँ नज़र आया उतर गया