वो ख़त के पुर्ज़े उड़ा रहा था
हवाओं का रुख़ दिखा रहा था
बताऊँ कैसे वो बहता दरिया
जब आ रहा था तो जा रहा था
कुछ और भी हो गया नुमायाँ
मैं अपना लिक्खा मिटा रहा था
धुआँ धुआँ हो गई थीं आँखें
चराग़ को जब बुझा रहा था
मुंडेर से झुक के चाँद कल भी
पड़ोसियों को जगा रहा था
उसी का ईमाँ बदल गया है
कभी जो मेरा ख़ुदा रहा था
वो एक दिन एक अजनबी को
मिरी कहानी सुना रहा था
वो उम्र कम कर रहा था मेरी
मैं साल अपने बढ़ा रहा था
ख़ुदा की शायद रज़ा हो इस में
तुम्हारा जो फ़ैसला रहा था
ग़ज़ल
वो ख़त के पुर्ज़े उड़ा रहा था
गुलज़ार