वो कौन है जो हलाक-ए-निगाह-ए-नाज़ नहीं
मैं कुछ नहीं हूँ अगर चश्म-ए-इम्तियाज़ नहीं
कमाल-ए-इश्क़ में भी लज़्ज़त-ए-मजाज़ नहीं
तड़प रहा हूँ मगर दिल में सोज़-ओ-साज़ नहीं
तो क्यूँ वो गर्मी-ए-महफ़िल वो दिल-कशी न रही
नियाज़-मंद अगर जान-ए-बज़्म-ए-नाज़ नहीं
ख़लिश के साथ तड़प है तड़प के साथ ख़लिश
हमारे ज़ाहिर-ओ-बातिन में इम्तियाज़ नहीं
ये वो कहे जो ज़मीरों का पढ़ने वाला है
तलब नहीं है जो दस्त-ए-तलब दराज़ नहीं
अभी करम में यक़ीनन सितम भी शामिल है
कि दिल मआ'ल-ए-मोहब्बत से बे-नियाज़ नहीं
पड़ा है इन से मोहब्बत का वास्ता 'नख़शब'
कि जिन को इश्क़-ओ-हवस में कुछ इम्तियाज़ नहीं
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ग़ज़ल
वो कौन है जो हलाक-ए-निगाह-ए-नाज़ नहीं
नख़्शब जार्चवि