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वो जो होती थी फ़ज़ा-ए-दास्तानी ले गया | शाही शायरी
wo jo hoti thi faza-e-dastani le gaya

ग़ज़ल

वो जो होती थी फ़ज़ा-ए-दास्तानी ले गया

रख़शां हाशमी

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वो जो होती थी फ़ज़ा-ए-दास्तानी ले गया
अहद-ए-नौ घर घर से परियों की कहानी ले गया

और ले जाता भी क्या टूटे हुए रिश्ते का दुख
कासा-ए-दिल से लहू आँखों से पानी ले गया

उस को जाना था चला जाता मगर जाते हुए
छीन कर मुझ से वो अपनी हर निशानी ले गया

क्यूँ नहीं खिलते अब आँखों में रवादारी के फूल
क्या हुआ ये कौन रब्त-ए-दरमियानी ले गया

वो क़लंदर थे सो उन को सारी दुनिया एक थी
चल दिए उठ कर जहाँ भी दाना-पानी ले गया

इक नज़र में कर दिया मसहूर क्या साहिर था वो
मुंजमिद कर के मुझे मेरी रवानी ले गया

उस के आगे रंग जितने थे वो फीके पड़ गए
सब पे सब्क़त एक अक्स-ए-ज़ाफ़रानी ले गया

जितने दुख आए मिटाने को हमीं ख़ुद मिट गए
कब कोई 'रख़्शाँ' हमारी सख़्त-जानी ले गया