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वो जो हम-रही का ग़ुरूर था वो सवाद-ए-राह में जल-बुझा | शाही शायरी
wo jo ham-rahi ka ghurur tha wo sawad-e-rah mein jal-bujha

ग़ज़ल

वो जो हम-रही का ग़ुरूर था वो सवाद-ए-राह में जल-बुझा

सलीम कौसर

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वो जो हम-रही का ग़ुरूर था वो सवाद-ए-राह में जल-बुझा
तू हवा के इश्क़ में घुल गया मैं ज़मीं की चाह में जल-बुझा

ये जो शाख़-ए-लब पे हुजूम-ए-रंग-ए-सदा खिला है गली गली
कहीं कोई शोला-ए-बे-नवा किसी क़त्ल-गाह में जल-बुझा

जो किताब-ए-इश्क़ के बाब थे तिरी दस्तरस में बिखर गए
वो जो अहद-नामा-ए-ख़्वाब था वो मिरी निगाह में जल-बुझा

हमें याद हो तो सुनाएँ भी ज़रा ध्यान हो तो बताएँ भी
कि वो दिल जो महरम-ए-राज़ था कहाँ रस्म-ओ-राह में जल-बुझा

कहीं बे-नियाज़ी की लाग में कहीं एहतियात की आग में
तुझे मेरी कोई ख़बर भी है मिरे ख़ैर-ख़्वाह मैं जल-बुझा

मिरी राख से नई रौशनी की हिकायतों को समेट ले
मैं चराग़-ए-सुब्ह-ए-विसाल था तिरी ख़ेमा-गाह में जल-बुझा

वो जो हर्फ़-ए-ताज़ा-मिसाल थे उन्हें जब से तू ने भुला दिया
तिरी बज़्म-ए-नाज़ का बाँकपन किसी ख़ानक़ाह में जल-बुझा