वो झूटा इश्क़ है जिस में फ़ुग़ाँ हो
वो कच्ची आग है जिस में धुआँ हो
अदू तुम से तुम उन से बद-गुमाँ हो
तुम्हारे वो तुम उन के पासबाँ हो
भला तुम और मुझ पर मेहरबाँ हो
इनायत ये नसीब-ए-दुश्मनाँ हो
मिरा हाल और फिर मेरा बयाँ हो
अजब क्या गर अदू भी हम-ज़बाँ हो
कहें किस से ख़ुदी में तुम कहाँ हो
गिला जब हो कि क़ाबू में ज़बाँ हो
तुम्हारी बे-रुख़ी शिकवे हमारे
क़यामत तक न पूरी दास्ताँ हो
ज़बाँ बहकी हुई हैराँ निगाहें
ख़याल-ए-दिल कहाँ है तुम कहाँ हो
मज़ा जब आए उन से गुफ़्तुगू का
पयामी का दहन मेरी ज़बाँ हो
कशीदा क्यूँ न हो बाज़ार-ए-यूसुफ़
कि जब तुम सा मता-ए-कारवाँ हो
कहूँ क्या राज़-ए-दिल क्यूँ कर हो बावर
कि तुम सा ही तुम्हारा राज़-दाँ हो
अभी से किस लिए दिल छोड़ बैठें
जहाँ तक हो सके आह-ओ-फ़ुग़ाँ हो

ग़ज़ल
वो झूटा इश्क़ है जिस में फ़ुग़ाँ हो
ज़हीर देहलवी