वो इक निगाह जो ख़ामोश सी है बरसों से
ये कौन जाने वो क्या कह रही है बरसों से
हमारे चेहरों पे अब अपना-पन नहीं उगता
ये वो ज़मीं है जो बंजर पड़ी है बरसों से
बदन का सारा लहू माँगता है वो इक लफ़्ज़
निगाह ज़ेहन की जिस पर टिकी है बरसों से
कहाँ से लाऊँ वो तस्वीर जो बनी ही नहीं
नज़र में गर्द उड़े जा रही है बरसों से
मिरी निगाह में दिन है मिरे बदन में है रात
मिरी किताब अधूरी पड़ी है बरसों से
समुंदरों में कभी बादलों के ख़ेमों में
इक आग मुझ को लिए फिर रही है बरसों से
कहाँ कहाँ लिए फिरती है रात को 'आबिद'
वो इक सदा जो मुझे ढूँढती है बरसों से
ग़ज़ल
वो इक निगाह जो ख़ामोश सी है बरसों से
आबिद आलमी