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वो हो कैसा ही दुबला तार बिस्तर हो नहीं सकता | शाही शायरी
wo ho kaisa hi dubla tar bistar ho nahin sakta

ग़ज़ल

वो हो कैसा ही दुबला तार बिस्तर हो नहीं सकता

ज़रीफ़ लखनवी

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वो हो कैसा ही दुबला तार बिस्तर हो नहीं सकता
ग़लत है आदमी इस तरह लाग़र हो नहीं सकता

कभी आँसू का क़तरा मिस्ल-ए-गौहर हो नहीं सकता
ग़लत है अब्र-ए-नैसाँ दीदा-ए-तर हो नहीं सकता

मियाँ मजनूँ हों चाहे कोहकन हो दोनों ख़ब्ती थे
किसी का कुछ भी उन से ख़ाक पत्थर हो नहीं सकता

कमर जिस के न हो वो बार से क्यूँ कर चलेगा फिर
ख़िलाफ़-ए-अक़्ल है ये इस तरह पर हो नहीं सकता

कहो फिर ये कमर मोटी है सर छोटा है दिलबर का
नहीं तो फिर क़द-ए-जानाँ सनोबर हो नहीं सकता

वो ख़त्त-ए-शौक़ के जितने पुलंदे चाहे ले जाए
मुलाज़िम डाक-ख़ाने में कबूतर हो नहीं सकता

ज़रीफ़' आईना दे कर डार्विन-साहब को समझा दो
न हो जब तक शरीर इंसान बंदर हो नहीं सकता