वो हँस हँस के वादे किए जा रहे हैं
फ़रेब-ए-तमन्ना दिए जा रहे हैं
तिरा नाम ले कर जिए जा रहे हैं
गुनाह-ए-मोहब्बत किए जा रहे हैं
मिरे ज़ख़्म-ए-दिल का मुक़द्दर तो देखो
निगाहों से टाँके दिए जा रहे हैं
न काली घटाएँ न फूलों का मौसम
मगर पीने वाले पिए जा रहे हैं
तिरी महफ़िल-ए-नाज़ से उठने वाले
निगाहों में तुझ को लिए जा रहे हैं
मिरे शौक़-ए-दीदार का हाल सुन कर
क़यामत के वादे किए जा रहे हैं
हरीम-ए-तजल्ली में ज़ौक़-ए-नज़र है
निगाहों से सज्दे किए जा रहे हैं
अभी है असीरी का आग़ाज़ 'माहिर'
अभी तो फ़क़त पर सिए जा रहे हैं
ग़ज़ल
वो हँस हँस के वादे किए जा रहे हैं
माहिर-उल क़ादरी

