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वो एक पल को मुझे इतना सच लगा था कि बस | शाही शायरी
wo ek pal ko mujhe itna sach laga tha ki bas

ग़ज़ल

वो एक पल को मुझे इतना सच लगा था कि बस

नाज़िम सुल्तानपूरी

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वो एक पल को मुझे इतना सच लगा था कि बस
वो हादिसा था मगर ऐसा हादिसा था कि बस

वो पहले पहले मिला था तो यूँ सजा था कि बस
फिर उस के बा'द तो ऐसा उजड़ गया था कि बस

मैं अपने गाँव के दीवार-ओ-दर पे क्या लिखता
वहाँ तो ऐसा अंधेरा चुना हुआ था कि बस

वो एक आम सा लहजा था भीगे मौसम का
निगाह-ओ-दिल में मगर यूँ उतर गया था कि बस

बस एक मोड़ तलक हम-सफ़र दिलासे थे
फिर उस के बा'द तो वो सख़्त मरहला था कि बस

ग़रीब टूट न जाता तो और क्या करता
तमाम उम्र ज़माने से यूँ लड़ा था कि बस

न आ सका वो मिरे घर तो क्या हुआ 'नाज़िम'
कि रास्ता भी तो ऐसा घुमाव का था कि बस