वो चाँदनी में कुछ ऐसा था तर-ब-तर तन्हा
मैं देखता रहा मंज़र ये रात भर तन्हा
हुई है जैसे अभी तक गुज़र-बसर तन्हा
गुज़ार डालेंगे बाक़ी का भी सफ़र तन्हा
पुकारता हूँ तिरा नाम जैसे सहरा में
हमेशा आती है आवाज़ लौट कर तन्हा
उक़ाब उड़ता है जिस तरह आसमानों में
बुलंदियों में किया करता हूँ सफ़र तन्हा
हमेशा रहता है हमराह क़ाफ़िला उस के
मुसीबत आती नहीं है किसी के घर तन्हा
वो मुंतज़िर है कोई उस के साए में आए
खड़ा है दूर रह-ए-हक़ पे इक शजर तन्हा
शरीक क़ाफ़िला होता तो जश्न हो जाता
मिले थे ख़िज़्र सफ़र था मिरा मगर तन्हा
चली गई है तिरे साथ ज़िंदगी 'जावेद'
मैं हो गया हूँ तिरे बअ'द किस क़दर तन्हा

ग़ज़ल
वो चाँदनी में कुछ ऐसा था तर-ब-तर तन्हा
जावेद जमील