वो बूढ़ा इक ख़्वाब है और इक ख़्वाब में आता रहता है
इस के सर पर अन-देखा पंछी मंडलाता रहता है
नाटक के किरदारों में कुछ सच्चे हैं कुछ झूटे हैं
पर्दे के पीछे कोई उन को समझाता रहता है
बस्ती में जब चाक-गरेबाँ गिर्या करते फिरते हैं
इस मौसम में एक रफ़ू-गर हँसता गाता रहता है
हर किरदार के पीछे पीछे चल देता है क़िस्सा-गो
यूँही बैठे बैठे अपना काम बढ़ाता रहता है
इस दिन भी जब बस्ती में तलवारें कम पड़ जाती हैं
एक मुदब्बिर आहन-गर ज़ंजीर बनाता रहता है
आवाज़ों की भीड़ में इक ख़ामोश मुसाफ़िर धीरे से
ना-मानूस धुनों में कोई साज़ बजाता रहता है
देखने वाली आँखें हैं और देख नहीं पातीं कुछ भी
इस मंज़र में जाने क्या कुछ आता जाता रहता है
इस दरिया की तह में 'आदिल' एक पुरानी कश्ती है
इक गिर्दाब मुसलसल उस का बोझ बढ़ाता रहता है

ग़ज़ल
वो बूढ़ा इक ख़्वाब है और इक ख़्वाब में आता रहता है
ज़ुल्फ़िक़ार आदिल