वो बुतों ने डाले हैं वसवसे कि दिलों से ख़ौफ़-ए-ख़ुदा गया
वो पड़ी हैं रोज़ क़यामतें कि ख़याल-ए-रोज़-ए-जज़ा गया
जो नफ़स था ख़ार-ए-गुलू बना जो उठे थे हाथ लहू हुए
वो नशात-ए-आह-ए-सहर गई वो वक़ार-ए-दस्त-ए-दुआ गया
न वो रंग फ़स्ल-ए-बहार का न रविश वो अब्र-ए-बहार की
जिस अदा से यार थे आश्ना वो मिज़ाज-ए-बाद-ए-सबा गया
जो तलब पे अहद-ए-वफ़ा किया तो वो आबरू-ए-वफ़ा गई
सर-ए-आम जब हुए मुद्दई तो सवाब-ए-सिदक़-ओ-सफ़ा गया
अभी बादबान को तह रखो अभी मुज़्तरिब है रुख़-ए-हवा
किसी रास्ते में है मुंतज़िर वो सुकूँ जो आ के चला गया
ग़ज़ल
वो बुतों ने डाले हैं वसवसे कि दिलों से ख़ौफ़-ए-ख़ुदा गया
फ़ैज़ अहमद फ़ैज़