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वो बे-नियाज़ शब-ओ-रोज़-ओ-माह-ओ-साल गया | शाही शायरी
wo be-niyaz shab-o-roz-o-mah-o-sal gaya

ग़ज़ल

वो बे-नियाज़ शब-ओ-रोज़-ओ-माह-ओ-साल गया

शाहिद अहमद शोएब

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वो बे-नियाज़ शब-ओ-रोज़-ओ-माह-ओ-साल गया
अब उस के गुम-शुदा होने का एहतिमाल गया

वो इक ख़याल कि हर-दम जहाँ ख़याल गया
कभी अज़ाब में रक्खा कभी सँभाल गया

जो शहर-ए-लफ़्ज़-ओ-मआ'नी से दूर दूर रहा
वो बे-हुनर तिरी गलियों से बा-कमाल गया

हुदूद-ए-वक़्त से आगे उड़ान भरते रहे
अमीर-ए-वक़्त का मंसब गया जलाल गया

हमें तो रुत के बदलने की कुछ ख़बर भी नहीं
हम अपनी नींद से जागे तो हर मलाल गया

असीर-ए-शब वो रहा उम्र-भर मगर इस बार
उठा तो ख़ाक से सूरज कई उछाल गया

न जाने किस को वो आवाज़ देता रहता है
कभी जो पूछा तो वो शख़्स हँस के टाल गया

उदास उदास है अब भी 'शोएब' फ़स्ल-ए-मुराद
उमीद उमीद में लगता है फिर ये साल गया