वो बज़्म-ए-ग़ैर में बा-सद-वक़ार बैठे हैं
हम उन के घर हमा-तन इंतिज़ार बैठे हैं
शबीह-ए-ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ जो हम बनाने लगे
रुके हैं उलझे हैं बिगड़े हैं यार बैठे हैं
जिसे ख़याल किया इश्क़ से नहीं ख़ाली
तमाम तालिब-ए-दीदार-ए-यार बैठे हैं
हम उस की बज़्म में हैं संग-ए-फ़र्श के मानिंद
ये जब्र बैठे हैं बे-इख़्तियार बैठे हैं
वो रश्क-ए-मेहर है ऐ 'मेहर' चर्ख़-ए-चारुम पर
हम इज़्तिराब में क्यूँ ज़र्रादार बैठे हैं
ग़ज़ल
वो बज़्म-ए-ग़ैर में बा-सद-वक़ार बैठे हैं
सय्यद अाग़ा अली महर