वो बाद-ए-गर्म था बाद-ए-सबा के होते हुए
मैं ज़ख़्म ज़ख़्म था बर्ग-ए-हिना के होते हुए
बस एक मंज़र-ए-ख़ाली था मेरी आँखों में
निगार-ख़ाना-ए-रंग-ए-हिना के होते हुए
वो ताक़-ए-दिल हो कि मेहराब-ए-मिम्बर-ओ-मक़्तल
चराग़ सब ने जलाए हवा के होते हुए
अजीब लोग थे ख़ामोश रह के जीते थे
दिलों में हुर्मत-ए-संग-ए-सदा के होते हुए
वो एक वस्ल की शब भी मलाल में गुज़री
गिरह-कुशाई-ए-बंद-ए-क़बा के होते हुए
वो लौट आए थे रंज-ए-सफ़र के इम्काँ से
रफ़ीक़-ए-राह की आवाज़-ए-पा के होते हुए
न कम हुआ था गुनाहों से रग़्बतों का जुनूँ
हज़ार सोहबत-ए-सिद्क़-ओ-सफ़ा के होते हुए
ग़ज़ल
वो बाद-ए-गर्म था बाद-ए-सबा के होते हुए
ज़ुबैर रिज़वी