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वो अव्वलीं दर्द की गवाही सजी हुई बज़्म-ए-ख़्वाब जैसे | शाही शायरी
wo awwalin dard ki gawahi saji hui bazm-e-KHwab jaise

ग़ज़ल

वो अव्वलीं दर्द की गवाही सजी हुई बज़्म-ए-ख़्वाब जैसे

तौसीफ़ तबस्सुम

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वो अव्वलीं दर्द की गवाही सजी हुई बज़्म-ए-ख़्वाब जैसे
वो चश्म-ए-सुर्मा कलाम करती वो सारे चेहरे किताब जैसे

वो आँख साया-फ़गन है दिल पर जो बे-ख़ुदी का है इस्तिआ'रा
घुली हुई नीलगूँ समुंदर में तलअ'त-ए-माहताब जैसे

बस एक धमाका कि रात की सरहदों का कुछ तो सुराग़ पाएँ
बस एक चिंगारी चाहता हो फ़तीला-ए-आफ़्ताब जैसे

वो जिस की पादाश में सहर-ज़ाद अपनी आँखें गँवा चुके हैं
इक और ताबीर चाहते हूँ वो अव्वलीं शब के ख़्वाब जैसे

वो मौज-ए-सरकश जो साहिलों को डुबो गई कैसे टूटती है
इस एक मंज़र के देखने को खुली हो चश्म-ए-हबाब जैसे

मिरी मिज़ा से टपकता आँसू हो जैसे हर डूबता सितारा
लिखा गया हो मिरी ही पलकों पे रत-जगों का हिसाब जैसे

लहू जो रिज़्क़-ए-ज़मीं हुआ है वो बारिशों में धुला नहीं है
तमाम आइंदा मौसमों के हो नाम ये इंतिसाब जैसे