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वो आरज़ू न रही और वो मुद्दआ न रहा | शाही शायरी
wo aarzu na rahi aur wo muddaa na raha

ग़ज़ल

वो आरज़ू न रही और वो मुद्दआ न रहा

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

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वो आरज़ू न रही और वो मुद्दआ न रहा
हमारे आप के हरगिज़ वो माजरा न रहा

सर-ए-नियाज़ रहा ज़ेर-ए-पा-ए-याद मुदाम
हिना की तरह मैं क़दमों से कब लगा न रहा

दिल आश्नाई को चाहे किसी की ख़ाक मिरा
कि आश्ना जो हुआ था वो आश्ना न रहा

हमेशा जिस से पहुँचता रहे था दिल को अलम
हज़ार शुक्र कि वो दर्द-ए-बे-दवा न रहा

जब आप हम ने बुताँ तर्क आश्नाई की
किसी भी तरह का तुम से हमें गिला न रहा

गुलों के चेहरों पे ज़र्दी सी फिर रही है तमाम
गई बहार वो मौसम का इब्तिदा न रहा

सफ़ा-ए-सीना से फिसला न कब दिल-ए-आशिक़
कि चाह-ए-नाफ़ में वो ख़ूँ-गिरफ़्ता जा न रहा

हज़ार हर्फ़-ए-ज़बाँ-सोज़ दरमियाँ आए
है सच तो ये कि मोहब्बत में वो मज़ा न रहा

चमन को छोड़ हम ऐसे चले गए सू-ए-दश्त
कि नाम को भी फिर अंदेशा-ए-सबा न रहा

ये किस के चाह-ए-ज़नख़दाँ की फ़िक्र में डूबा
तमाम रात जो ज़ानू से सर जुदा न रहा

अजब न जान गर आ जाए सल्तनत को ज़वाल
किसी के सर पे सदा साया-ए-हुमा न रहा

निशान-ए-'मुसहफ़ी'-ए-ख़स्ता पूछते क्या हो
वो ख़ाक-ए-राह तो अब मिस्ल-ए-नक़्श-ए-पा न रहा