वो आलम तिश्नगी का है सफ़र आसाँ नहीं लगता
ब-ज़ाहिर तो मुझे बारिश का भी इम्काँ नहीं लगता
ये दिल जागीर है जिस की उसी के नाम कर दी है
जो मेरे दिल के आँगन में मुझे मेहमाँ नहीं लगता
शुऊ'र-ओ-आगही कैसी कोई वहशी कोई सरकश
ये कैसा देश है जिस में कोई इंसाँ नहीं लगता
नई क़द्रें नई तहज़ीब का आग़ाज़ होता है
गुलिस्तान-ए-अदब हरगिज़ कभी वीराँ नहीं लगता
न हो महफ़ूज़ माल-ओ-ज़र न इज़्ज़त-आबरू ही जब
तो फिर ज़िंदा किसी का भी मुझे ईमाँ नहीं लगता
कहाँ का फ़ख़्र कैसा नाज़ मन-आनम कि मन-दानम
मगर जो रब से पाया है मुझे अर्ज़ां नहीं लगता
ख़ुदा रक्खे 'सबीला' हर घड़ी माँ-बाप का साया
दुआ से जिन की तूफ़ाँ भी मुझे तूफ़ाँ नहीं लगता
ग़ज़ल
वो आलम तिश्नगी का है सफ़र आसाँ नहीं लगता
सबीला इनाम सिद्दीक़ी