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विसाल-ओ-हिज्र के क़िस्से न यूँ सुनाओ हमें | शाही शायरी
visal-o-hijr ke qisse na yun sunao hamein

ग़ज़ल

विसाल-ओ-हिज्र के क़िस्से न यूँ सुनाओ हमें

मंज़र अय्यूबी

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विसाल-ओ-हिज्र के क़िस्से न यूँ सुनाओ हमें
अब इस अज़ाब-ए-शब-ओ-रोज़ से बचाओ हमें

किसी भी घर में सही रौशनी तो है हम से
नुमूद-ए-सुब्ह से पहले तो मत बुझाओ हमें

नहीं है ख़ून-ए-शहीदाँ की कोई क़द्र यहाँ
लगा के दाव पे हम को न यूँ गँवाओ हमें

तमाम उम्र का सौदा है एक पल का नहीं
बहुत ही सोच समझ कर गले लगाओ हमें

गुज़र चुके हैं मक़ाम-ए-जुनूँ से दीवाने
ये जान लेना अगर कल यहाँ न पाओ हमें

हमारे ख़ूँ से निखर जाए ग़म तो क्या कहना
बढ़ाओ दस्त-ए-सितम दार पर चढ़ाओ हमें

करिश्मा-साज़ी-ए-फ़िक्र-ओ-नज़र से क्या हासिल
बने हो ख़िज़्र तो फिर रास्ता दिखाओ हमें

ये लम्हा भर का तसव्वुर तो जान-लेवा है
जो याद आओ तो ता-उम्र याद आओ हमें

किताब-ए-इश्क़ हैं लेकिन न इतनी फ़र्सूदा
कि बे-पढ़े ही फ़क़त मेज़ पर सजाओ हमें

उजड़ न जाए उरूस-ए-सुख़न की माँग कहीं
ख़याल-ओ-फ़न की नई जंग से बचाओ हमें