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विसाल-घड़ियों में रेज़ा रेज़ा बिखर रहे हैं | शाही शायरी
visal-ghaDiyon mein reza reza bikhar rahe hain

ग़ज़ल

विसाल-घड़ियों में रेज़ा रेज़ा बिखर रहे हैं

हसन अब्बास रज़ा

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विसाल-घड़ियों में रेज़ा रेज़ा बिखर रहे हैं
ये कैसी रुत है ये किन अज़ाबों के सिलसिले हैं

मिरे ख़ुदा इज़्न हो कि मोहर-ए-सुकूत तोड़ें
मिरे ख़ुदा अब तिरे तमाशाई थक चुके हैं

न जाने कितनी गुलाब-सुब्हें ख़िराज दे कर
रसन रसन घोर अमावसों में घिरे हुए हैं

सदाएँ देने लगी थीं हिजरत की अप्सराएँ
मगर मिरे पाँव धर्ती-माँ ने पकड़ लिए हैं

यक़ीन कर लो कि अब न पीछे क़दम हटेगा
ये आख़िरी हद थी और हम इस तक आ गए हैं