EN اردو
विदा-ए-यार का लम्हा ठहर गया मुझ में | शाही शायरी
wida-e-yar ka lamha Thahar gaya mujh mein

ग़ज़ल

विदा-ए-यार का लम्हा ठहर गया मुझ में

रहमान फ़ारिस

;

विदा-ए-यार का लम्हा ठहर गया मुझ में
मैं ख़ुद तो ज़िंदा रहा वक़्त मर गया मुझ में

सुकूत-ए-शाम में चीख़ें सुनाई देती हैं
तू जाते जाते अजब शोर भर गया मुझ में

वो पहले सिर्फ़ मिरी आँख में समाया था
फिर एक रोज़ रगों तक उतर गया मुझ में

कुछ ऐसे ध्यान में चेहरा तिरा तुलूअ' हुआ
ग़ुरूब-ए-शाम का मंज़र निखर गया मुझ में

मैं उस की ज़ात से मुंकिर था और फिर इक दिन
वो अपने होने का एलान कर गया मुझ में

खंडर समझ के मिरी सैर करने आया था
गया तो मौसम-ए-ग़म फूल धर गया मुझ में

गली में गूँजी ख़मोशी की चीख़ रात के वक़्त
तुम्हारी याद का बच्चा सा डर गया मुझ में

बता मैं क्या करूँ दिल नाम के इस आँगन का
तिरी उमीद पे जो सज-सँवर गया मुझ में

ये अपने अपने मुक़द्दर की बात है 'फ़ारिस'
मैं इस में सिमटा रहा वो बिखर गया मुझ में