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वस्ल की उम्मीद बढ़ते बढ़ते थक कर रह गई | शाही शायरी
wasl ki ummid baDhte baDhte thak kar rah gai

ग़ज़ल

वस्ल की उम्मीद बढ़ते बढ़ते थक कर रह गई

साक़िब लखनवी

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वस्ल की उम्मीद बढ़ते बढ़ते थक कर रह गई
सुब्ह-ए-काज़िब और क्या करती चमक कर रह गई

दिल शब-ए-ग़म काट लाया दम हुआ लेकिन हवा
इक कली थी जो सहर होते महक कर रह गई

ना-शनास-ए-रू-ए-ख़ुश-हाली है तब-ए-ग़म-नसीब
जब मसर्रत सामने आई झिजक कर रह गई

मुझ को जलने दे अभी ऐ मौत क्यूँ दुनिया कहे
आग कैसी थी जो सीने में भड़क कर रह गई

कोई क्या देखे बहार-ए-रू-ए-क़ातिल बाद-ए-ज़ब्ह
क्यूँ खुले वो आँख जो हसरत से तक कर रह गई

मेरे दिल के ज़ख़्म और उन की शमातत देखिए
हँस दिए किश्त-ए-तमन्ना जब लहक कर रह गई

क्या तमन्ना थी ये बेताबी जिसे रुकना पड़ा
तंग था सेहन-ए-क़फ़स बुलबुल फड़क कर रह गई

लोग कहते हैं खुला था रात भर बाब-ए-क़ुबूल
किस तरफ़ मेरी दुआ 'साक़िब' भटक कर रह गई