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वस्ल की रात है आख़िर कभी उर्यां होंगे | शाही शायरी
wasl ki raat hai aaKHir kabhi uryan honge

ग़ज़ल

वस्ल की रात है आख़िर कभी उर्यां होंगे

नसीम देहलवी

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वस्ल की रात है आख़िर कभी उर्यां होंगे
मैं पशेमाँ हूँ तो क्या वो न पशेमाँ होंगे

आप मर जाऊँगा तू आ कि न आ ओ ज़ालिम
आज वो दिन है कि मुझ पर मिरे एहसाँ होंगे

ग़ैर की शक्ल बनेंगे कभी ख़ुद उन का शौक़
हम भी देखें तो कहाँ तक न वो पुरसाँ होंगे

दिल जो रूठा तो मनाने से कहीं मनता है
ये सितम बाइस-हसरत तुझे ऐ जाँ होंगे

आज बहरूप अदू का है बनाया मैं ने
अब तो वो भी मिरे अंदाज़ पे क़ुर्बां होंगे

उन को पहनेंगे मिरे दश्त-ए-जुनूँ के काँटे
ये वो दामन हैं कि आख़िर को गरेबाँ होंगे

बरहमी दूरी-ए-जानाँ में उन्हें होगी 'नसीम'
मेरे नाले असर-ए-फ़िक्र-ए-ग़ज़ल-ख़्वाँ होंगे