वस्ल के दिन का इशारा है कि ढल जाऊँगा
दिल ये कहता है कि क़ाबू से निकल जाऊँगा
आतिश-ए-इश्क़ बढ़ी जाती है बैठो दम-भर
गर्म-रफ़्तार रहोगे तो मैं जल जाऊँगा
इंतिज़ार आप का ऐसा है कि दम कहता है
निगह-ए-शौक़ हूँ आँखों से निकल जाऊँगा
दिल से कहता है शब-ए-वस्ल यही शौक़-ए-विसाल
मैं वो अरमान नहीं हूँ कि निकल जाऊँगा
सैकड़ों ज़ख़्म लगेंगे न हटूँगा क़ातिल
शजर-ए-बाग़-ए-मोहब्बत हूँ मैं फल जाऊँगा
अहद-ए-तिफ़्ली से ये कहता था मिज़ाज-ए-जानाँ
देख लेना कि जवानी में बदल जाऊँगा
तिफ़्ल-ए-अश्क आँख तक आता है ये कहता है 'रशीद'
मुझ को मर्दुम ने जो रोका तो मचल जाऊँगा
ग़ज़ल
वस्ल के दिन का इशारा है कि ढल जाऊँगा
रशीद लखनवी