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वस्ल के दिन का इशारा है कि ढल जाऊँगा | शाही शायरी
wasl ke din ka ishaara hai ki Dhal jaunga

ग़ज़ल

वस्ल के दिन का इशारा है कि ढल जाऊँगा

रशीद लखनवी

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वस्ल के दिन का इशारा है कि ढल जाऊँगा
दिल ये कहता है कि क़ाबू से निकल जाऊँगा

आतिश-ए-इश्क़ बढ़ी जाती है बैठो दम-भर
गर्म-रफ़्तार रहोगे तो मैं जल जाऊँगा

इंतिज़ार आप का ऐसा है कि दम कहता है
निगह-ए-शौक़ हूँ आँखों से निकल जाऊँगा

दिल से कहता है शब-ए-वस्ल यही शौक़-ए-विसाल
मैं वो अरमान नहीं हूँ कि निकल जाऊँगा

सैकड़ों ज़ख़्म लगेंगे न हटूँगा क़ातिल
शजर-ए-बाग़-ए-मोहब्बत हूँ मैं फल जाऊँगा

अहद-ए-तिफ़्ली से ये कहता था मिज़ाज-ए-जानाँ
देख लेना कि जवानी में बदल जाऊँगा

तिफ़्ल-ए-अश्क आँख तक आता है ये कहता है 'रशीद'
मुझ को मर्दुम ने जो रोका तो मचल जाऊँगा