वक़्त ने रंग बहुत बदले क्या कुछ सैलाब नहीं आए
मिरी आँखें कब वीरान हुईं कब तेरे ख़्वाब नहीं आए
दिल सहरा का वो तिश्ना-लब हर बार यही सोचा जिस ने
मुमकिन है कि आगे दरिया हो और कोई सराब नहीं आए
हम लोग क्यूँ इतने परेशाँ हैं किस बात पर आख़िर नालाँ हैं
क्या सारी बहारें रूठ गईं क्या अब के गुलाब नहीं आए
तुम क़ुर्ब की राहत क्या समझो तुम हिज्र की वहशत क्या जानो
तुम ने वो रात नहीं काटी तुम पर वो अज़ाब नहीं आए
पहले भी जहाँ पर बिछड़े थे वही मंज़िल थी इस बार मगर
वो भी बे-लौस नहीं लौटा हम भी बे-ताब नहीं आए
ये बज़्म-ए-'हिलाल' है ख़ूब मगर जब तक न सुनाएँ आप ग़ज़ल
चेहरों के गुलाब नहीं महकें महफ़िल पे शबाब नहीं आए
ग़ज़ल
वक़्त ने रंग बहुत बदले क्या कुछ सैलाब नहीं आए
हिलाल फ़रीद