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वक़्त करता है ख़ुद-कुशी मुझ में | शाही शायरी
waqt karta hai KHud-kushi mujh mein

ग़ज़ल

वक़्त करता है ख़ुद-कुशी मुझ में

ताहिर फ़राज़

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वक़्त करता है ख़ुद-कुशी मुझ में
लम्हा लम्हा है ज़िंदगी मुझ में

सोने वाली समाअतो जागो
ख़ामुशी बोलने लगी मुझ में

शुक्रिया ऐ जलाने वाले तेरा
दूर तक अब है रौशनी मुझ में

रोज़ अपना ही ख़ून पीता हूँ
ऐसी कब थी दरिंदगी मुझ में

इस नए दौर में न खो जाए
ये जो बाक़ी है सादगी मुझ में

शे'र मेरा था दाद उस को मिली
शख़्सियत की कमी जो थी मुझ में

जानता हूँ मैं अपने क़ातिल को
रोज़ करता है ख़ुद-कुशी मुझ में

शे'र कहना नहीं है सहल 'फ़राज़'
ये वदीअत है क़ुदरती मुझ में