वक़्त-ए-रुख़्सत चलते चलते कह गए
अब जो अरमाँ रह गए सो रह गए
जल्द-बाज़ अरमाँ तेरे दीदार के
ख़ून हो कर आँसुओं में बह गए
उम्र भर सोचा किए समझे न हम
आँखों आँखों में वो क्या क्या कह गए
क्या छुपाता है मेरा हाल ऐ तबीब
कहने वाले मेरे मुँह पर कह गए
उस की मंज़िल तक न पहुँचा एक भी
सब मुसाफ़िर रास्ते में रह गए
पहले 'नातिक़' दिल जिगर में दर्द था
अब सरापा दर्द बन कर रह गए
ग़ज़ल
वक़्त-ए-रुख़्सत चलते चलते कह गए
नातिक़ लखनवी