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वक़्त-ए-मुश्किल में भी होंटों पर हँसी अच्छी लगी | शाही शायरी
waqt-e-mushkil mein bhi honTon par hansi achchhi lagi

ग़ज़ल

वक़्त-ए-मुश्किल में भी होंटों पर हँसी अच्छी लगी

सय्यद इक़बाल रिज़वी शारिब

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वक़्त-ए-मुश्किल में भी होंटों पर हँसी अच्छी लगी
मेरे ख़ालिक़ को मिरी ये बंदगी अच्छी लगी

ढो रहा था बस यूँही मैं आज तक अपना वजूद
तुम से मिल कर मुझ को अपनी ज़िंदगी अच्छी लगी

बस लिहाज़न फेंक कर सिगरट किनारे हो गया
मुझ को नस्ल-ए-नौ की ये शर्मिंदगी अच्छी लगी

लब तुम्हारे मीर की उस पंखुड़ी के मिस्ल हैं
इस लिए मुझ को मेरी तिश्ना-लबी अच्छी लगी

ख़ून के रिश्ते हुए जब भी कभी नज़्र-ए-अना
भाई को महफ़िल में भाई की कमी अच्छी लगी

सूरत-ओ-सीरत का वो इतना हसीं था इम्तिज़ाज
अहल-ए-दानिश को मिरी दीवानगी अच्छी लगी

चंद उर्दू लफ़्ज़ भी शामिल थे जुमलों में तिरे
इस लिए 'शारिब' उन्हें बोली तिरी अच्छी लगी