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वहीं थे शाख़-ए-गुल पर गुल जहाँ जम्अ | शाही शायरी
wahin the shaKH-e-gul par gul jahan jama

ग़ज़ल

वहीं थे शाख़-ए-गुल पर गुल जहाँ जम्अ

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

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वहीं थे शाख़-ए-गुल पर गुल जहाँ जम्अ
किए बुलबुल ने ख़ार-ए-आशियाँ जम्अ

लगा देता है उन को चुन के आतिश
हुमा कर के हमारे उस्तुखाँ जम्अ

चमन में किस के आने की ख़बर है
करे है फूल चुन चुन बाग़बाँ जम्अ

है सोहबत का परेशानों के ये रंग
हवा से होवें जो बर्ग-ए-ख़िज़ाँ जम्अ

सफ़र की मुझ से क्या कहते हो जाओ
करूँ क्या गर हुआ है कारवाँ जम्अ

अभी मू-ए-परेशाँ से किसी के
मिरी ख़ातिर नहीं ऐ दोस्ताँ जम्अ

फ़लक ने संग फेंका तफ़रक़े का
हुए दो-चार साहिब-दिल जहाँ जम्अ

न ख़र्च-ए-'मुसहफ़ी' की पूछो उस से
तवक्कुल का है माल-ए-बे-कराँ जम्अ