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वहीं से जब कि इशारा हो ख़ुद-नुमाई का | शाही शायरी
wahin se jab ki ishaara ho KHud-numai ka

ग़ज़ल

वहीं से जब कि इशारा हो ख़ुद-नुमाई का

इस्माइल मेरठी

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वहीं से जब कि इशारा हो ख़ुद-नुमाई का
अजब कि बंदा न दावा करे ख़ुदाई का

मिले जो रुत्बा तिरे दर की जबह-साई का
तो एक सिलसिला हो शाही-ओ-गदाई का

नहीं है फ़ैज़ में ख़िस्सत व-लेक पैदा है
तफ़ावुत आइना-ओ-संग में सफ़ाई का

यहाँ जो इश्क़ है बेताब-ए-जल्वा-ए-दीदार
वहाँ भी हुस्न मुहर्रिक है ख़ुद-नुमाई का

बुतों के सामने बुत-गर घिसे जबीन-ए-नियाज़
मैं शेफ़्ता हूँ तिरी शान-ए-किब्रियाई का

न कर किसी की बुराई न बन भले से बुरा
भला भला है बुरा काम है बुराई का

बनाएँ बिगड़ी हुई को तो एक बात भी है
बिगाड़ना नहीं मुश्किल बनी-बनाई का

उठा हिजाब तो बस दीन-ओ-दिल दिए ही बनी
जनाब-ए-शैख़ को दा'वा था पारसाई का

तुम्हारे दिल से कुदूरत मिटाए तो जानें
खुला है शहर में इक महकमा सफ़ाई का

हवस है गर सर-ओ-सामाँ के जम्अ' करने की
तलाश कर सर-ओ-सामान बे-नवाई का

सिवाए इश्क़ नहीं कोई रहबर-ए-चालाक
वहाँ ख़िरद को नहीं हौसला रसाई का

उसी का वस्फ़ है मक़्सूद शेर-ख़्वानी से
उसी का ज़िक्र है मंशा ग़ज़ल-सराई का

नहीं है अब के ज़माने की ये रविश ज़िन्हार
मैं यादगार हूँ 'ख़ाक़ानी'-ओ-'सनाई' का