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वहीं जी उठते हैं मुर्दे ये क्या ठोकर से छूना है | शाही शायरी
wahin ji uThte hain murde ye kya Thokar se chhuna hai

ग़ज़ल

वहीं जी उठते हैं मुर्दे ये क्या ठोकर से छूना है

वलीउल्लाह मुहिब

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वहीं जी उठते हैं मुर्दे ये क्या ठोकर से छूना है
वो रफ़्तार और वो क़ामत क़यामत का नमूना है

घुटा आता है दम ये इश्क़ ने आतिश है सुलगाई
दिल-ए-सोज़ाँ से या क़िस्मत धुआँ आँखों का दूना है

अरे ओ ख़ाना-आबाद इतनी ख़ूँ-रेज़ी ये क़त्ताली
कि एक आशिक़ नहीं कूचा तिरा वीरान सूना है

कबाब-ए-दिल अगरचे सोख़्ता है चख तो ऐ कैफ़ी
ये अँगारों पर आह-ए-आतिशीं ने ख़ूब भूना है

मुबस्सिर जौहर-ए-ख़त पर कहीं हैं उस के अबरू को
सुरूही कोई है बे-कल कि जिस का अब ये कूना है

तिलिस्म इक हुस्न ख़ल्क-अल्लाह के आलम का दिल पे है
फिरो ईरान-ओ-तुर्किस्तान फ़रंगिस्ताँ-ओ-यूना है

हमारे आह-ए-तीर-ए-बे-कमाँ ने ख़ाना-ए-दिल से
ये रुख़ फेरा कि ता-बाम-ए-फ़लक बाँधा सुतूना है

जहाँ अहल-ए-वरा' मज्लिस में हों वो बख़्श लेने को
निशाँ नक़्श-ए-दनी का साथ इक लड़का जमूना है

अगर तस्वीर-ए-रंग-ए-ज़र्द-ए-आशिक़ ख़ूब-रू देखें
कोई बतलाएगा सूना घर का कोई कूना है

दिया मैं पान उसे इक रेख़्ता पढ़ कर लगा कहने
ये ईंटी खूई का कत्था है और कंकर का चूना है

तुझे देता है बाज़ी ऐ 'मुहिब' बच जाइयो उस से
कि नट-खट उस के यार और वो दग़ाबाज़ एक घूना है