वही रटे हुए जुमले उगल रहा हूँ अभी
गिरफ़्त-ए-हर्फ़ से बाहर निकल रहा हूँ अभी
वो एक तू कि हवा की तरह गुज़र भी चुका
वो एक मैं कि फ़क़त हाथ मल रहा हूँ अभी
मिरी नुमूद किसी जिस्म की तलाश में है
मैं रौशनी हूँ अंधेरों में चल रहा हूँ अभी
कुशादा बर्ग रहें हिज्र के घने साए
तिरे विसाल के सहरा में जल रहा हूँ अभी
सहर के रंग मिरी राख से जनम लेंगे
'नजीब' रात की आँखों में जल रहा हूँ अभी
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ग़ज़ल
वही रटे हुए जुमले उगल रहा हूँ अभी
नजीब अहमद