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वही रातें आएँ वही ज़ारियाँ | शाही शायरी
wahi raaten aaen wahi zariyan

ग़ज़ल

वही रातें आएँ वही ज़ारियाँ

मुसहफ़ी ग़ुलाम हमदानी

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वही रातें आएँ वही ज़ारियाँ
वही फिर सहर तक की बेदारियाँ

परी हूर इंसाँ किसी में नहीं
जो देखी हैं तुझ में अदा-दारियाँ

मैं काफ़िर हूँ पर देख सकता नहीं
कमर से तिरी रब्त-ए-ज़ुन्नारियाँ

न थे दाग़ सीने के इतने घने
ये हैं दस्त-ए-क़ुदरत की गुल-कारियाँ

हम इक रोज़ जी से गुज़र जाएँगे
रहें यूँ ही गर नित की बे-ज़ारियाँ

बहारें कहाँ अब्र-ए-गुलनार की
कहाँ मेरी मिज़्गाँ की ख़ूँ-बारियाँ

न सज्दों से हासिल हुआ वस्ल-ए-यार
मैं काबे में भी टक्करें मारियाँ

मवाक़ीस जिस दम तो साबित हुईं
सिवा इश्क़ के कितनी बीमारियाँ

तू कैसी बला में फँसा 'मुसहफ़ी'
हुईं क्या दिवाने वो होशयारियाँ