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वहाँ खुले भी तो क्यूँकर बिसात-ए-हिकमत-ओ-फ़न | शाही शायरी
wahan khule bhi to kyunkar bisat-e-hikmat-o-fan

ग़ज़ल

वहाँ खुले भी तो क्यूँकर बिसात-ए-हिकमत-ओ-फ़न

शमीम करहानी

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वहाँ खुले भी तो क्यूँकर बिसात-ए-हिकमत-ओ-फ़न
मिले हर एक जबीं पर जहाँ शिकन ही शिकन

हमारी ख़ाक कभी राएगाँ न जाएगी
हमारी ख़ाक को पहचानती है ख़ाक-ए-वतन

ख़िज़ाँ की रात में कुम्हला के फूल गिरते हैं
तो जाग जाती है सोई हुई ज़मीन-ए-चमन

बहुत है रात अँधेरी मगर चले ही चलो
कि आप अपने मुसाफ़िर को ढूँड लेगी किरन

खिले हैं फूल मगर दिल कहाँ खिले हैं 'शमीम'
अभी चमन से बहुत दूर है बहार-ए-चमन