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वहाँ हर एक इसी नश्शा-ए-अना में है | शाही शायरी
wahan har ek isi nashsha-e-ana mein hai

ग़ज़ल

वहाँ हर एक इसी नश्शा-ए-अना में है

असलम इमादी

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वहाँ हर एक इसी नश्शा-ए-अना में है
कि ख़ाक-ए-रहगुज़र-ए-यार भी हवा में है

अलिफ़ से नाम तिरा तेरे नाम से मैं अलिफ़
इलाही मेरा हर इक दर्द इस दुआ में है

वही कसीली सी लज़्ज़त वही सियाह मज़ा
जो सिर्फ़ होश में था हर्फ़-ए-ना-रवा में है

वो कोई था जो अभी उठ के दरमियाँ से गया
हिसाब कीजे तो हर एक अपनी जा में है

नमी उतर गई धरती में तह-ब-तह 'असलम'
बहार-ए-अश्क नई रुत की इब्तिदा में है