वफ़ा की मंज़िलों को हम ने इस तरह सजा लिया
क़दम क़दम पे इक चराग़-ए-आरज़ू जला लिया
रह-ए-हयात में हज़ार उलझनें रहीं मगर
तुम्हारा ग़म जहाँ मिला उसे गले लगा लिया
हमारे हौसले हमारी जुरअतें तो देखिए
क़ज़ा को अपनी ज़िंदगी का पासबाँ बना लिया
हज़ार बार हम फ़राज़-ए-दार से गुज़र गए
हज़ार बार हम ने उन का ज़र्फ़ आज़मा लिया
ख़िरद तो साथ दे सकी न राह-ए-इश्क़ में मगर
जुनूँ ही एक था कि जिस को हम-सफ़र बना लिया
फिर आज अहल-ए-जौर को शिकस्त-ए-फ़ाश हो गई
फिर आज अहल-ए-दिल ने परचम-ए-'वफ़ा' उठा लिया

ग़ज़ल
वफ़ा की मंज़िलों को हम ने इस तरह सजा लिया
वफ़ा सिद्दीक़ी