वफ़ा का ज़िक्र ही क्या है जफ़ा भी रास आए
वो मुस्कुराए तो जुर्म-ए-ख़ता भी रास आए
वतन में रहते हैं हम ये शरफ़ ही क्या कम है
ये क्या ज़रूर कि आब-ओ-हवा भी रास आए
हथेलियाँ हैं तिरी लौह-ए-नूर की मानिंद
ख़ुदा करे तुझे रंग-ए-हिना भी रास आए
दवा तो ख़ैर हज़ारों को रास आएगी
मज़ा तो जीने का जब है शिफ़ा भी रास आए
तो फिर ये आदमी ख़ुद को ख़ुदा समझने लगे
अगर ये उम्र-ए-गुरेज़ाँ ज़रा भी रास आए
अब इस क़दर भी न कर जुस्तजू-ए-आब-ए-बक़ा
गुल-ए-हुनर है तो बाद-ए-फ़ना भी रास आए
ये तेरा रंग-ए-सुख़न तेरा बाँकपन ऐ 'शाज़'
कि शे'र रास तो आए अना भी रास आए

ग़ज़ल
वफ़ा का ज़िक्र ही क्या है जफ़ा भी रास आए
शाज़ तमकनत