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वाक़िफ़ हैं ख़ू-ए-यार से देखे चलन तमाम | शाही शायरी
waqif hain KHu-e-yar se dekhe chalan tamam

ग़ज़ल

वाक़िफ़ हैं ख़ू-ए-यार से देखे चलन तमाम

सीमाब ज़फ़र

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वाक़िफ़ हैं ख़ू-ए-यार से देखे चलन तमाम
यक आन ग़म्ज़ा-ज़न कभी शमशीर-ज़न तमाम

किस सोज़-ए-अंदरून ने तुझ को किया फ़िगार
किस शख़्स वास्ते है दिला ये सुख़न तमाम

गुल-रंग-ओ-लाला-फ़ाम-ओ-शफ़क़-ताब-ओ-ख़ुश-इज़ार
यक माह-ए-नौ से माँद हुए सीम-तन तमाम

सो नामा-बर को काहे थमाएँ पयाम हम
मस्तूर है निगाह में अपना सुख़न तमाम

रक्खा है सैंत सैंत तिरा दर्द दोस्ता
गरचे नक़ब लगाया किए राहज़न तमाम

बस ऐ जमाल-ए-यार तिरा इल्तिफ़ात था
जों वा हुआ निगाह पे बाग़-ए-अदन तमाम

हाए वो पल न रोक सके अश्क-ए-लाला-गूँ
अहवाल-ए-शौक़ जान गई अंजुमन तमाम