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वाँ तो मिलने का इरादा ही नहीं | शाही शायरी
wan to milne ka irada hi nahin

ग़ज़ल

वाँ तो मिलने का इरादा ही नहीं

निज़ाम रामपुरी

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वाँ तो मिलने का इरादा ही नहीं
याँ वो ख़्वाहिश है कि होता ही नहीं

यूँ सताने के तो लायक़ थे न हम
आप ने कुछ हमें समझा ही नहीं

जिस से तस्कीं हो मिरी ऐ क़ासिद
ऐसी तो बात तू कहता ही नहीं

और भी ऐसी तो बातें हैं बहुत
गिला-ए-रंजिश-ए-बेजा ही नहीं

ले गईं नीची निगाहें दिल को
आँख उठा कर अभी देखा ही नहीं

रश्क-ए-दुश्मन से नसीहत हुई आप
दिल वहाँ जाने को होता ही नहीं

और जो ज़ुल्म हो मंज़ूर मुझे
ग़ैर से रब्त गवारा ही नहीं

याँ तो ये मुंतज़िर-ए-वादा हम
और वाँ याद वो वादा ही नहीं

रब्त-ए-दुश्मन से है इंकार अबस
हमें इस बात का शिकवा ही नहीं

हम ख़ुदा से भी नहीं माँगते कुछ
याँ कोई अपनी तमन्ना ही नहीं

न सही कोई बुराई न सही
तुम से मिलना मुझे अच्छा ही नहीं

उस की हर बात को सच समझे 'निज़ाम'
उस सा अय्यार तो पैदा ही नहीं