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वाँ नक़ाब उट्ठी कि सुब्ह-ए-हश्र का मंज़र खुला | शाही शायरी
wan naqab uTThi ki subh-e-hashr ka manzar khula

ग़ज़ल

वाँ नक़ाब उट्ठी कि सुब्ह-ए-हश्र का मंज़र खुला

यगाना चंगेज़ी

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वाँ नक़ाब उट्ठी कि सुब्ह-ए-हश्र का मंज़र खुला
या किसी के हुस्न-ए-आलम-ताब का दफ़्तर खुला

ग़ैब से पिछले पहर आती है कानों में सदा
उट्ठो उट्ठो रहमत-ए-रब्ब-ए-उला का दर खुला

आँख झपकी थी तसव्वुर बंध चुका था यार का
चौंकते ही हसरत-ए-दीदार का दफ़्तर खुला

कू-ए-जानाँ का समाँ आँखों के आगे फिर गया
सुब्ह-ए-जन्नत का जो अपने सामने मंज़र खुला

रंग बदला फिर हवा का मय-कशों के दिन फिरे
फिर चली बाद-ए-सबा फिर मय-कदे का दर खुला

आ रही है साफ़ बू़-ए-सुंबुल-ए-बाग़-ए-जिनाँ
गेसु-ए-महबूब शायद मेरी मय्यत पर खुला

चार-दीवार-ए-अनासिर फाँद कर पहुँचे कहाँ
आज अपना ज़ोर-ए-वहशत अर्श-ए-आज़म पर खुला

चुप लगी मुझ को गुनाह-ए-इश्क़ साबित हो गया
रंग चेहरे का उड़ा राज़-ए-दिल-ए-मुज़्तर खुला

अश्क-ए-ख़ूँ से ज़र्द चेहरे पर है क्या तुर्फ़ा बहार
देखिए रंग-ए-जुनूँ कैसा मिरे मुँह पर खुला

ख़ंजर-ए-क़ातिल से जन्नत की हवा आने लगी
और बहार-ए-ज़ख़्म से फ़िरदौस का मंज़र खुला

नीम-जाँ छोड़ा तिरी तलवार ने अच्छा किया
एड़ियाँ बिस्मिल ने रगड़ीं सब्र का जौहर खुला

सोहबत-ए-वाइज़ में भी अंगड़ाइयाँ आने लगीं
राज़ अपनी मय-कशी का क्या कहें क्यूँकर खुला

हाथ उलझा है गरेबाँ में तो घबराओ न 'यास'
बेड़ियाँ क्यूँकर कटीं ज़िंदाँ का दर क्यूँकर खुला