उसी की तरह मुझे सारा ज़माना चाहे
वो मिरा होने से ज़्यादा मुझे पाना चाहे
मेरी पलकों से फिसल जाता है चेहरा तेरा
ये मुसाफ़िर तो कोई और ठिकाना चाहे
एक बनफूल था इस शहर में वो भी न रहा
कोई अब किस के लिए लौट के आना चाहे
ज़िंदगी हसरतों के साज़ पे सहमा-सहमा
वो तराना है जिसे दिल नहीं गाना चाहे
ग़ज़ल
उसी की तरह मुझे सारा ज़माना चाहे
कुमार विश्वास