उसी दर्द-आश्ना दिल की तरफ़-दारी में रहते हैं
हम अपने-आप में गुम अपनी ग़म-ख़्वारी में रहते हैं
यूँही हम रफ़्ता रफ़्ता दिल-गिरफ़्ता होते जाएँगे
कि हम अपने ग़मों की नाज़-बरदारी में रहते हैं
ये दुनिया हम ने दुनिया-दार की आँखों से देखी है
मगर ऐ दिल हम अपनी ही अमल-दारी में रहते हैं
हमारे सुख बहुत कम और दुख उन से बहुत कम हैं
सो हम भी आज कल उन की निगह-दारी में रहते हैं
अभी अहल-ए-हवस दुनिया में क्या क्या गुल खिलाएँगे
अभी अहल-ए-जुनूँ ख़्वाब-ए-जहाँ-दारी में रहते हैं
ग़ज़ल
उसी दर्द-आश्ना दिल की तरफ़-दारी में रहते हैं
महताब हैदर नक़वी

