उसे क्या रात दिन जो तालिब-ए-दीदार फिरते हैं
ग़रज़ है तो ग़रज़ के वास्ते सौ बार फिरते हैं
इधर देखो भला हम को ज़माना क्या नहीं कहता
तो क्या हर एक से करते हुए तकरार फिरते हैं
जो अब वहशत नहीं भी है तो अपनी चाल क्यूँ छोड़ें
जिधर जी चाहे दिन-भर रात-भर बे-कार फिरते हैं
तिरी ख़ातिर मोहब्बत हो गई है दिल की वहशत से
हमें आवारा-पन पर आ गया है प्यार फिरते हैं
तड़पने लूटने की आज उन तक भी ख़बर पहुँची
मुझे बदनाम करने को मिरे ग़म-ख़्वार फिरते हैं
उसे हम मानते हैं तो ज़माने-भर से अच्छा है
मगर अच्छे भी अपने क़ौल से ऐ यार फिरते हैं
समझते हैं समझने वाले उस को भी रिया-कारी
गली-कूचों में क्यूँ तेरे सितम-बरदार फिरते हैं
तुम्हें अफ़्सोस क्यूँ है आशिक़ों की कूचा-गर्दी पर
फिराता है मुक़द्दर ये ख़ुदाई ख़ार फिरते हैं
कहीं ऐसा न हो इक रोज़ तुम भी हम से फिर जाओ
यहाँ पहले ही अपनी जान से बेज़ार फिरते हैं
वो दिल की आरज़ू अब है न उस की जुस्तुजू अब है
हमारे पाँव में चक्कर है हम बे-कार फिरते हैं
किसी काफ़िर का घर था या नहीं मा'लूम जन्नत थी
अभी तक मेरी आँखों में दर-ओ-दीवार फिरते हैं
ज़माने से निराला है चलन इन हुस्न वालों का
लक़ब तो क़ातिल-ए-आलम है बे-तलवार फिरते हैं
'सफ़ी' को तुम ने तो कोई बड़ा पहुँचा हुआ समझा
अजी रहने भी दो ऐसे बहुत मक्कार फिरते हैं

ग़ज़ल
उसे क्या रात दिन जो तालिब-ए-दीदार फिरते हैं
सफ़ी औरंगाबादी