उस शोख़ से मिलते ही हुई अपनी नज़र तेज़
है मेहर-ए-दरख़्शाँ की शुआ'ओं का असर तेज़
वो पेड़ जो तेज़ाब से सैराब हुआ था
उस पेड़ का होने लगा हर एक समर तेज़
वो मंज़िल-ए-मक़्सूद पे पहुँचेगा यक़ीनन
जो राह में चलता रहे बे-ख़ौफ़-ओ-ख़तर तेज़
देता है जिधर उन को मफ़ाद अपना दिखाई
अरबाब-ए-हवस शौक़ से बढ़ते हैं उधर तेज़
बे-नूर न कर जाए फ़सादात की आँधी
लौ घर के चराग़ों की ज़रा और भी कर तेज़
आसार क़यामत के नज़र आते हैं 'आसी'
इस दौर में देखा गया हर एक बशर तेज़
ग़ज़ल
उस शोख़ से मिलते ही हुई अपनी नज़र तेज़
आसी फ़ाईकी