उस शो'ला-रू से जब से मिरी आँख जा लगी
क्या जाने तब से सीने में क्या आग आ लगी
का'बे में वो ज़ुहूर है जो बुत-कदे में है
ऐ शैख़ मुंसिफ़ी से तू कहियो ख़ुदा-लगी
पा तक भी दस्तरस न हो मुझ को ये रश्क है
और तेरे हाथ में रहे क़ातिल हिना लगी
दुश्नाम तुम ने मुझ को जो दी तो मैं ख़ुश हुआ
और मैं ने दी दुआ तो तुझे बद-दुआ लगी
वो ग़ुंचा-लब जो ख़ंदा-ज़नाँ है चमन में आज
शायद गुलों के खिलने की उस को हवा लगी
ख़्वाबीदा बख़्त ने वहीं बेदार कर दिया
तेरे ख़याल में जो ये आँख इक ज़रा लगी
'ग़मगीं' जो एक आन पे तेरे अदा हुआ
क्या ख़ुश अदा उसे तिरी ऐ ख़ुश-अदा लगी
ग़ज़ल
उस शो'ला-रू से जब से मिरी आँख जा लगी
ग़मगीन देहलवी