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उस से उम्मीद-ए-वफ़ा ऐ दिल-ए-नाशाद न कर | शाही शायरी
us se ummid-e-wafa ai dil-e-nashad na kar

ग़ज़ल

उस से उम्मीद-ए-वफ़ा ऐ दिल-ए-नाशाद न कर

अब्दुल अलीम आसि

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उस से उम्मीद-ए-वफ़ा ऐ दिल-ए-नाशाद न कर
ज़िंदगी अपनी इस अरमान में बरबाद न कर

गिला-ए-ज़ौर न कर शिकवा-ए-बेदार न कर
ज़ुल्म सहने का मज़ा ये है कि फ़रियाद न कर

ख़ल्वत-ए-दिल है तिरे आ के ठहरने की जगह
तेरी मर्ज़ी उसे बरबाद कर आबाद न कर

बाग़बाँ ताक में है घात में सय्याद है देख
सैर-ए-गुलशन अभी ऐ बुलबुल-ए-नाशाद न कर

कुछ तड़पने का सिसकने का मज़ा लेने दे
इतनी ताजील मिरे क़त्ल में जल्लाद न कर

अब मुझे ताक़त-ए-परवाज़ नहीं ऐ सय्याद
रहने दे क़ैद क़फ़स से मुझे आज़ाद न कर

ऊपरी दिल से सही कुछ तो तसल्ली हो जाए
साफ़ इंकार से ज़ालिम मुझे नाशाद न कर

दर-ए-महबूब तक ऐ बख़्त मुझे पहूँचा दे
और कुछ उस से सिवा तू मिरी इमदाद न कर

बे-धड़क जान सभी अहल-ए-वफ़ा देते हैं
तू फ़क़त मिदहत-ए-जाँबाज़ी-ए-फ़र्हाद न कर

ग़म-ए-दिलदार ने रग रग का लहू चूस लिया
मुझ से अब छेड़ तू ऐ नश्तर-ए-फ़ौलाद न कर

लाख दुश्वार सही ज़ब्त-ए-फ़ुग़ाँ ऐ बुलबुल
मगर इक उफ़ भी तो बे-मर्ज़ी-ए-सय्याद न कर

सदमा-ए-हिज्र के शिकवों पे वो बोले शब-ए-वस्ल
गई गुज़री हुई बातों को तू अब याद न कर

ऐ दिल उस शोख़ की तस्वीर तसव्वुर में तो खींच
काम मानी से न रख मिन्नत-ए-बहज़ाद न कर

'आसी'-ए-बे-सर-ओ-सामाँ को पड़ा रहने दे
अपने कूचे से उठा कर उसे नाशाद न कर