EN اردو
उस से क्या ख़ाक हम-नशीं बनती | शाही शायरी
us se kya KHak ham-nashin banti

ग़ज़ल

उस से क्या ख़ाक हम-नशीं बनती

दाग़ देहलवी

;

उस से क्या ख़ाक हम-नशीं बनती
बात बिगड़ी हुई नहीं बनती

वो बनी इब्तिदा-ए-उल्फ़त में
दम पे जो वक़्त-ए-वापसीं बनती

आदमी सब फ़रिश्ते बन जाते
आसमाँ पर अगर ज़मीं बनती

मेरी सूरत बनी तो ख़ाक बनी
क़िस्मत ऐ सूरत-आफ़रीं बनती

वादे करते ही क्या वो आ जाते
रात भर ज़ुल्फ़-ए-अम्बरीं बनती

काश सुनता न कोई शोर ओ फ़ुग़ाँ
दिल की जा चश्म-ए-सुर्मगीं बनती

तू ने ऐसे बिगाड़ डाले हैं
एक की एक से नहीं बनती

न चमकती जो हुस्न की तक़दीर
क्यूँ तिरी चाँद सी जबीं बनती

पारा-ए-जेब से मिरे ऐ काश
दस्त-ए-वहशत की आस्तीं बनती

बज़्म-ए-दुनिया थी क़ाबिल-ए-जन्नत
ख़ूब बनती अगर यहीं बनती

तब-ए-नाज़ुक का लुत्फ़ जब था 'दाग़'
नाज़नीनों में नाज़नीं बनती