उस से क्या ख़ाक हम-नशीं बनती
बात बिगड़ी हुई नहीं बनती
वो बनी इब्तिदा-ए-उल्फ़त में
दम पे जो वक़्त-ए-वापसीं बनती
आदमी सब फ़रिश्ते बन जाते
आसमाँ पर अगर ज़मीं बनती
मेरी सूरत बनी तो ख़ाक बनी
क़िस्मत ऐ सूरत-आफ़रीं बनती
वादे करते ही क्या वो आ जाते
रात भर ज़ुल्फ़-ए-अम्बरीं बनती
काश सुनता न कोई शोर ओ फ़ुग़ाँ
दिल की जा चश्म-ए-सुर्मगीं बनती
तू ने ऐसे बिगाड़ डाले हैं
एक की एक से नहीं बनती
न चमकती जो हुस्न की तक़दीर
क्यूँ तिरी चाँद सी जबीं बनती
पारा-ए-जेब से मिरे ऐ काश
दस्त-ए-वहशत की आस्तीं बनती
बज़्म-ए-दुनिया थी क़ाबिल-ए-जन्नत
ख़ूब बनती अगर यहीं बनती
तब-ए-नाज़ुक का लुत्फ़ जब था 'दाग़'
नाज़नीनों में नाज़नीं बनती
ग़ज़ल
उस से क्या ख़ाक हम-नशीं बनती
दाग़ देहलवी