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उस पर भी दुश्मनों का कहीं साया पड़ गया | शाही शायरी
us par bhi dushmanon ka kahin saya paD gaya

ग़ज़ल

उस पर भी दुश्मनों का कहीं साया पड़ गया

ख़लील-उर-रहमान आज़मी

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उस पर भी दुश्मनों का कहीं साया पड़ गया
ग़म सा पुराना दोस्त भी आख़िर बिछड़ गया

जी चाहता तो बैठते यादों की छाँव में
ऐसा घना दरख़्त भी जड़ से उखड़ गया

ग़ैरों ने मुझ को दफ़्न किया शाह-राह पर
मैं क्यूँ न अपनी ख़ाक में ग़ैरत से गड़ गया

ख़ल्वत में जिस की नर्म-मिज़ाजी थी बे-मिसाल
महफ़िल में बे-सबब वही मुझ से अकड़ गया

बस इतनी बात थी कि अयादत को आए लोग
दिल के हर एक ज़ख़्म का टाँका उधड़ गया

किस किस को अपने ख़ून-ए-जिगर का हिसाब दूँ
इक क़तरा बच रहा है सो वो भी निबड़ गया

यारों ने ख़ूब जा के ज़माने से सुल्ह की
मैं ऐसा बद-दिमाग़ यहाँ भी बिछड़ गया

कोताहियों की अपनी मैं तावील क्या करूँ
मेरा हर एक खेल मुझी से बिगड़ गया

अब क्या बताएँ क्या था ख़यालों के शहर में
बसने से पहले वक़्त के हाथों उजड़ गया