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उक़ाब दिल हो तो सारा जहान एक सा है | शाही शायरी
uqab dil ho to sara jahan ek sa hai

ग़ज़ल

उक़ाब दिल हो तो सारा जहान एक सा है

ख़ालिद यूसुफ़

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उक़ाब दिल हो तो सारा जहान एक सा है
ज़मीन कोई भी हो आसमान एक सा है

कोई ठिकाना वतन का बदल नहीं होता
मुहाजिरों के लिए हर मकान एक सा है

तअ'य्युनात-ए-इलाक़ा बिरादरी फ़िरक़े
सिपाह-ए-जहल कहीं हो निशान एक सा है

वो कोई साहब-ए-जागीर हो कि मुल्ला हो
मगर हमारे लिए क़हरमान एक सा है

निगाह मसनद-ए-आ'ला पे रोज़-ए-अव्वल से
दयार-ए-यार का हर पासबान एक सा है

पनाह दामन-ए-क़ानून में न मस्जिद में
हमारे शहर में हर साएबान एक सा है

हमारी आँख का तारा वो हो नहीं सकता
तमाम बज़्म पे जो मेहरबान एक सा है

फ़लूजा-ओ-नजफ़-ओ-कर्बला से पहले वो
समझ रहे थे कि हर बे-ज़बान एक सा है

हज़ार बार भी लुट कर सबक़ नहीं सीखा
वफ़ा के शहर में हर ख़ुश-गुमान एक सा है

जिहाद-ए-सैफ़ हो 'ख़ालिद' कि हो जिहाद-ए-क़लम
किसी ज़बान में हो इम्तिहान एक सा है